(मई दिवस पर एक बहुत पुरानी कविता)

by Uday Prakash (Notes) on FB

मालिक आप नाहक नाराज़ हैं 


मालिक, आखिर हवा तो आपके कहने से नहीं चलती 
धूप  का क्या करेंगे आप जो गिरेगी ही 
आपकी बरौनियों पर 
आपके ऊपर चढ़  कर खेलेंगी ही रोशनी की नटखट गिलहरियाँ 

रंगों पर बस तो नहीं है आपका 
आप जब भी निहारेंगे 
वे खिल खिलाएंगे आपके खून में 
छुपा-छुपी खेलने लगेंगे 
घुस कर 

इन सबको मना तो नहीं कर सकते आप 

मैं ठीक कह रहा हूँ मालिक, 
आप नाहक नाराज़ हैं 
भूल जाइये बिलकुल उन चीज़ों को 
जिन पर हुक्म नहीं चलता आपका 

आखिर हवा किसनिया कहारिन तो है नहीं मालिक ,
जो कराहती हुई 
चौका-बासन करे आपका 
बाल्टी भर-भर पानी छत तक चढ़ाए ,
दो घंटे छोटे बाबू को बहलाए 
और फिर आपका बिछौना बिछाए 

आखिर धूप  सुरजा तो है नहीं मालिक जिसकी कमीज़ आप गुस्से में फाड़ दें 
और जिसकी काली पीठ पर 
अपनी चिलमची के गुल झाड़  दें 
धूप  सुरजा बिलकुल नहीं हैं मालिक,
जिसे आप अपने दरबार में उंकड़ू बैठा कर 
गरियाते रहें 
और पीटते रहें 

और रंग ?
रंग आपके चाकर नहीं हैं सरकार 
जो आपका लिहाज़ करें 
हुक्का भर-भर लाएं, सलाम बजाएँ , 
आपकी ड्योढ़ीदारी करें 

आपके बनिहारों के बच्चे नहीं हैं ये भोले-भाले रंग 
जो आपको देख कर , डर  कर 
अपने-अपने ओसारों में छुप जाएं  

इन सब पर नाहक ही बिगड कर अपना खून जला रहे हैं आप 
बे-बात की बात पर बड़ -बड़ा रहे हैं आप 

आखिर जेठ की धूप  में आंच तो रहेगी ही मालिक,
आखिर हवा में धूल-धक्कड़
तिनका-पत्ता तो होगा ही 

मालिक, ये धूप  है 
जेठ की असल 
जैसे-जैसे सूरज चढ़ेगा  और धरती घूमेगी 
यह और तप -तपाएगी 
गर्म लाल लोहे की तरह 
और मोम की तरह चुएँगे आप 

और हवा ?
इसके मन की बात तो मत पूछिए मालिक,
जितना ही आप गुस्सायेंगे 
उतना ही सर पर चढ़  कर दौड़ेगी आपकी कंघी-पाटी मेटती हुई 
आपकी कोई बात इसके कलेजे लगी तो
फिर मत पूछिएगा सरकार 

हवा बिगड़  जाती है तो कहर ढाती  है 
कंगूरे, गुम्बद, किले सब बिखेर डालती है 
जहाज़ों को गेंद की तरह उछालती है 
नदियों को फुहार बना देती है 
तिनगी को बडवागिन

आप तो फिर क्या हैं मालिक !
फूस की तरह उड़ेंगे अंधड़ में 
पटखनी खायेंगे खपरैलों में 
बे-पर्द अलग हो जाएंगे 

और नीचे 
धरती पर 
इत्ते सारे -इत्ते सारे रंग 
सबके सब 
आपका मज़ाक बनाएंगे । 

('सुनो कारीगर' संग्रह, (1980), वाणी  प्रकाशन , नई  दिल्ली से  प्रकाशित / १९७ ६ में लिखी  गई एक कविता)   

पहली मई